Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


47.

ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न ले सके थे, पर उनके प्रबन्ध कौशल ने परिषद् की सफलता में कोई बाधा न होने दी। सन्ध्या हो गयी थी। विद्यावती अन्दर बैठी हुई एक पुराना शाल रफू कर रही थी। राय साहब ने उसके सैर करने के लिए एक बहुत अच्छी सेजगाड़ी दे दी थी और कोचवान को ताकीद की थी कि जब विद्या का हुक्म मिले, तुरन्त सवारी तैयार करके उसके पास ले जाये; लेकिन इतने दिनों से विद्या एक दिन भी कहीं सैर करने न गयी। उनका मन घर के धन्धों से लगता था। उसे न थियेटर का शौक था, न सैर करने का, न गाने-बजाने का। इनकी अपेक्षा उसे भोजन बनाने या सीने-पिरोने में ज्यादा आनन्द मिलता था। इस एकान्त-सेवन के कारण उसका मुखकमल मुर्झाया रहता था। बहुधा सिर-पीड़ा से ग्रसित रहती थी। वह परम सुन्दर, कोमलांगी रमणी थी, पर उसमें अभिमान का लेश भी न था। माँगचोटी, आईने-कंघी से अरुचि थी। उसे आश्चर्य होता था कि गायत्री क्योंकर अपना अधिकांश समय बनाव सँवार में व्यतीत किया करती है। कमरे में अँधेरा हो रहा था; पर वह अपने काम में इतनी रत थी कि उसे बिजली के बटन दबाने का भी ध्यान न था। इतने में राय साहब उसके द्वार पर आ कर खड़े हो गये और बोले– ईश्वर से बड़ी भूल हो गयी कि उसने तुम्हें दर्जिन न बना दिया। अँधेरा हो गया, आँखों में सूझता नहीं, लेकिन तुम्हें अपने सुई-तागे से छुट्टी नहीं।

विद्या ने शाल समेट दिया और लज्जित हो कर बोली– थोड़ा-सा बाकी रह गया था, मैंने सोचा कि इसे पूरा कर लूँ तो उठूँ।

राय साहब पलंग पर बैठ गये और कुछ कहना चाहते थे कि खाँसी आयी और थोड़ा-सा खून मुँह से निकल पड़ा, आँखें निस्तेज हो गयीं और हृदय में विषम पीड़ा होने लगी। मुखाकार विकृत हो गया। विद्या ने घबराकर पूछा– पानी लाऊँ? यह मरज तो आपको न था। किसी डॉक्टर को बुला भेजूँ?

राय साहब– नहीं, कोई जरूरत नहीं। अभी अच्छा हो जाऊँगा। यह सब मेरे सुयोग्य, विद्वान और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र बाबू ज्ञानशंकर की कृपा का फल है।

विद्या ने प्रश्नसूचक विस्मय से राय साहब की ओर देखा और कातर भाव से जमीन की ओर ताकने लगी। राय साहब सँभल कर बैठ गये और एक बार पीड़ा से कराह कर बोले– जी तो नहीं चाहता कि मुझ पर जो कुछ बीती है। वह मेरे और ज्ञानशंकर के सिवा किसी दूसरे व्यक्ति के कानों तक पहुँचे; किन्तु तुमसे पर्दा रखना अनुचित ही नहीं अक्षम्य है। तुम्हें सुनकर दुःख होगा, लेकिन सम्भव है इस समय का शोक और खेद तुम्हें आनेवाली मुसीबतों से बचाये, जिनका सामान प्रारब्ध के हाथों हो रहा है। शायद तुम अपनी चतुराई से उन विपत्तियों का निवारण कर सको।

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